अच्छी या बुरी संगति का असर व्यक्ति के जीवन में पड़ता है- व्यास सचिन शास्त्री

कटनी(अनिरुद्ध बजाज)।।पूज्य जगदगुरु वेदांती जी महाराज के प्रिय शिष्य कथा व्यास सचिन शास्त्री जी ने छठवे दिन की कथा मे श्रोताओ को मंगलमय कथा मे इन्द मे अभिमान को भगवान ने समाप्त किया क्योंकि  भगवान जिसे अपना बनाने है तो समय समय से उसे अपराधों से बचाने के लिए कभी कभी दंड दे बोध कराते है की स्वरूप क्या है,  भावनाओं का संतुलन आसान हो जाता है ..!
 विकल्परहित संकल्प और अखण्ड-प्रचण्ड पुरुषार्थ से आप अपने उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। पूज्य "आचार्यश्री जी" ने उन्नति के पथ पर सदैव अग्रसर रहने का शुभाशीष देते हुए कहा कि उन्नति के लिए प्रयास न करना ही अवनति है। आपके द्वारा किया गया उपक्रम आपको उन्नति ही दिलाएगा  अनुशासन व समय की महत्ता का पालन कर जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। कोई भी काम करने से पहले संकल्प, विचार और विश्वास को मजबूत करें। जीवन में जब कोई बड़ा निर्णय लेना हो तब वेदमत, लोकमत, विधिमत सद्गुरु मत और परिवार का मत अवश्य लेना चाहिए, क्योंकि यह हमें सदैव सच्चा मार्ग दिखाते हैं। मनुष्य को सदा अच्छी संगति करनी चाहिए। अच्छी या बुरी संगति का असर व्यक्ति के जीवन में पड़ता है। गलत लोगों की संगत करने पर कुछ समय के लिए तो सुख मिलता है, लेकिन बाद में अनेक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को हानि पहुँचाने वाले लोगों के साथ उनके परिवार को भी नुकसान, अपमान झेलना पड़ता है। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति जैसा कार्य करता है उसको वैसे ही फल की प्राप्ति होती है।  हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है - शास्त्रानुसार भक्ति कर के मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होना। भक्ति करने से ही मोक्ष होता है। गीता जी के अनुसार तत्वदर्शी संत से उपदेश लेकर शास्त्रों के अनुसार भक्ति करने से ही मोक्ष होता है तथा यही जीवन का प्रथम व अन्तिम लक्ष्य है ।
शास्त्री जी ने कहा  जीवन में आध्यात्मिक गुणवत्ता जरूरी है। अतः स्वयं करें, स्वयं का उद्धार। आत्म-संयम के कठिन रास्ते पर चलने वालों को कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। हर दिन अपना आत्म-निरीक्षण करते रहना चाहिए। अपने दोष, बुराइयों को जान बूझकर छिपाना या उस पर पर्दा नहीं डालना चाहिए। अपनी बुराइयों को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। सुधारना है तो स्वयं को सुधारें। आत्म-निरीक्षण करने के साथ ही सुधार की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। संसार में कोई भी नियम ऐसा नहीं है, बिना आत्म-संयम के जिसका कि पालन किया जा सके। अपनी बुराइयों को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। उन्हें दूर करने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए। संयम के लिए नैतिक बल की आवश्यकता होती है। संयम साधना में संगति और स्थान का काफी प्रभाव पड़ता है। खराब चरित्र एवं दुर्विचार वाले व्यक्तियों से दूर रहना चाहिए। जहाँ असंयम का वातावरण होता है, वहाँ संयम साधना में सफलता नहीं मिलती है। वहीं, अच्छे लोगों की संगत करके एवं अच्छे वातावरण में रह कर इसे प्राप्त किया जा सकता है। जीवन के उत्कर्ष के लिए संत-महापुरुषों का अनुसरण आवश्यक है। अध्यात्म आत्म-उत्कर्ष, जीवन-सिद्धि, अखण्ड-आनन्द एवं परम-शान्ति का मार्ग है। गीताकार ने अर्जुन को और उनके माध्यम से मानव को प्रेरणा दी है कि अपना उद्धार स्वयं करें। अपनी समृद्धि के लिए स्वयं तत्पर एवं उद्यत हों। अपने उत्थान और पतन का दायित्व स्वयं वहन करें। यदि जीवन में हमें ऊँचा उठना है, तो हमें स्वयं ही पुरुषार्थ करना होगा।

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